Welcome to the desk of an Engineer......

For an optimist the glass is half full, for a pessimist it’s half empty, and for an engineer is twice bigger than necessary.

Friday, February 4, 2011

गुनाहों का देवता : एक अहसास

पढने के शौक के चलते यूं तो ये उपन्यास पहले शायद 9th में पढा था, मगर कुछ भी याद नहीं था। पिछले दिनों  दिल्ली बुक फेयर में हिन्दी के इक्लौते स्टाल पर जब गुनाहों का देवता दिखाई दिया तो सोंचा इसे भी अपने पुस्तकों के संकलन में शामिल कर लें।
इतवार को कुछ वक्त मिला तो सोंचा इसे पढना शुरु कर देते हैं। आराम से कम से कम एक हफ्ते में पढ जायेगा। पर पढना शुरु करने के बाद अपने आप को रोकना मुश्किल था। कल शाम को इसे खत्म करने के बाद मन एक अजीब सी उदासी से घिरा हुआ है। एक अजीब सा भारीपन है जिसे समझना मुश्किल सा लग रहा है। सोंचा था बहुत कुछ लिखेंगे, पर मन अभी भी उन पात्रों के बीच भटका हुआ है। जिन्होंने भी गुनाहों का देवता पढा है, वो मेरी हालत समझ पा रहे होंगे।
वैसे देखा जाय तो ये एक सीधी सी कहानी है, पर भावनाओं से एकदूसरे से बंधे सभी पात्र और कहानी विलक्षण हैं। कभी ये पात्र अपने बीच के से लगते हैं तो कभी किसी दूसरी दुनिया के से। सुधा और चंदर मुख्य पात्र हैं बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं। वे एकदूसरे से इतना प्यार करते हैं कि उसकी पराकाष्टा बलिदान और त्याग में होती है। वे एक ओर महान हैं तो दूसरी ओर उनमें मनुष्यगत कम्जोरियां भी हैं, इन्हें वे स्वीकार भी करते हैं । पर हमारा पसंदीदा चरित्र बिनती का है। जो एक साधारण और व्यवहारिक लडकी है। उसके चरित्र में आरम्भ से अंत तक जो परिवर्तन दिखाया गया है, वो आशा की ओर ले जाता है।
आधा उपन्यास पढने के बाद ही पता नहीं क्यों अहसास हो गया था कि सुधा को तो जाना ही है। और जो उपसंहार है , लगता है इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता था।
शायद कुछ दिन बाद, या कुछ साल बाद इसे दोबारा पढेंगे, तब शायद कुछ और गहराई से समझ पायेंगे।
किताब का आखरी अंश बहुत ही सुंदर है;

.....चीख से चन्दर जैसे होश में आ गया। थोडी देर चुपचाप रहा फिर झुककर अंजलि में पानी लेकर मुंह धोया और बिनती के आंचल से पोंछकर बहुत मधुर स्वर में बोला-"बिनती, रोओ मत! मेरी समझ में कुछ नहीं आता कुछ भी! रोओ मत!" चन्दर का गला भर आया और आंसू छलक आये-"चुप हो जाओ रानी!मैं अब इस तरह कभी नहीं करूंगा-उठो! अब हम दोनों को निभाना है, बिनती!" चन्दर ने तख्त पर छीना छपटी में बिख्ररी हुई राख चुटकी में उठाई और बिनती की मांग में भरकर मांग चूम ली। उसके होंठ राख से सन गये।
सितारे टूट चुके थे। तूफान खत्म हो चुका था।
नाव किनारे पर आकर लग गई थी-मल्लाह को चुपचाप रुपये देकर बिनती का हांथ थामकर चन्दर ठोस धरती पर उतर पडा....'मुरदा चांदनी में दो छायाएं मिलती-जुलती हुई चल दीं।
गंगा की लहरों मे बनता हुआ राख का सांप टूट फूट कर बिखर चुका थाऔर नदी फिर उसी तरह बहने लगी थी जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो।

Thursday, February 3, 2011

...एक अनकही कहानी!

लिखना कभी उसका पैशन हुआ करता था.. कुछ लिखे बिना उसे जीना नहीं आता था, लिखना जैसे की उसके लिए सांस लेना जैसा था. कुछ कविता या नज़्म नहीं तो डायरी या फिर यूँ ही बेलौस बस लिखे जाना उसकी आदत सी थी. अगर वो कुछ पढता भी तो उसकी कलम उसके साथ होती थी. किताब पर वो कुछ नहीं लिखता था पर उसकी साफ़ शफ्फाक किताबों में रक्खी छोटी छोटी पर्चियों में उसकी समझ के अनुसार वो किताब पढ़ी जा सकती थी. उसके पर्स में हमेशा एक सफ़ेद पन्ना और जेब में एक कलम जरुर होती थी. पर अपने लिखे हुए को वो संभाल कर नहीं रखता था! ये भी उसकी सभी अजीब आदतों सी एक आदत थी. अपनी आदतों में बंधा हुआ  था, और अपनी आदतों से अलग कुछ करने में वो परेशान हो जाता  था, झुंझला जाता था.  एक बंधे बंधाये रूटीन में उसकी ज़िन्दगी चलती थी. बस इसी तरह जीना उसे आता था.....

 और फिर एक दिन उसकी ज़िन्दगी ने करवट ली, वक्त की डाली पर एक नयी कोंपल नए मौसम के साथ यूँ उगी की पूरी फिजा ही बदल गयी. मुस्कुराहटों के मौसम छा गए. अब अपनी खुली किताब सी ज़िन्दगी वो छिपाने लगा. उसे लगता की उसके जज्बे कोई उसके चहरे पर ही न पढ़ ले. और लिखना तो बस यूँ ही बंद हो गया. अब वो पढता भी तो कुछ लिखता नहीं की कोई कुछ अंदाजे न लगा ले. यूँ सबसे सब कुछ छिपा कर रखना भी उसकी आदत सी हो गई..अब वो सपनों में जीता था, उसके ख़्वाब उसकी अमानत थे..और वो अपने ख़्वाबों की दुनिया का सह्जादा था ..अब वो लिखता नहीं था, अपने शब्दों को खुद जीता था, वो एक जीती जागती कहानी बन ग़या था....एक अनकही कहानी!