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Saturday, September 18, 2010

आरक्षण कि आग में जलता "भारत"

आज पूरा भारत आरक्षण की ऐसी आग में जल रहा है जहा से उसे बचा पाना मुस्किल है. हर तरफ आरक्षण का बोल बाला है. आज जिसे देखो उसे आरक्षण चाहीय.  पुरे भारत में रह रह कर ये ही शोर सुनायी देता है के किसी ना किसी जाती को आरक्षण चाहीय. बिहार हो या राजस्तान, गुजरात हो या फिर जार्खंड, उत्तर परदेश हो या फिर आंद्रप्रदेश, सभी राज्यों की अलग अलग जातियों ने आरक्षण के मांग की है. और अब हरयाणा के जाट भी आरक्षण की मांग करने लगे है. अगर सरकार ऐसे ही आरक्षण बाटते रही तो वो दिन दूर नहीं जब भारत में सामान्य जाती के लोगो के लिये कुछ नही बचेगा.

आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य क्या है?? 

भारतवर्ष में राजनैतिक दलों द्वारा बडे ही दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से धर्म जाति, वर्ग, क्षेत्र तथा भाषा आदि के नाम पर जनता से वोट मांगे जाते हैं। राजनैतिक दल अथवा नेतागण इस बात को भली भांति समझते हैं कि चूंकि उनके द्वारा विकास एवं प्रगति के नाम पर ऐसा कुछ विशेष नहीं किया गया है जिसकी दुहाई देकर वे मतदाताओं से अपने पक्ष में मतदान करने का निवेदन कर सकें। अतः मतदाताओं को धर्म जाति व सम्प्रदाय जैसे सीमित दायरों में बांधकर तथा उन्हीं सीमित स्वार्थों का वास्ता देकर मत प्राप्त करना इन नेताओं व राजनैतिक दलों को सुगम प्रतीत होता है। और यही विचार आरक्षण जैसे उस फार्मूले को जन्म देते हैं जोकि शायद ही समाज के किसी भी एक वर्ग का सही ढंग से कल्याण कर पाता हो। परन्तु देश में लागू आरक्षण की वर्तमान नीतियां अनारक्षित वर्ग के लोगों में आरक्षित वर्ग के प्रति वैमनस्य का पर्याय अवश्य बन जाती हैं।
स्वतंत्र भारत में आरक्षण की शुरुआत दलित समाज को अन्य समाज के बराबर खडा करने के उद्देश्य से की गई थी। समय गुजरने के साथ-साथ दलित, आरक्षण तथा आरक्षण की आवश्यकताओं आदि की परिभाषा भी बदलती गई। यदि कुछ लोगों ने विशेषकर आरक्षित वर्ग के सम्पन्न लोगों ने इस आरक्षण नीति के लाभ उठाए हैं तो इसी आरक्षण के विद्वेष स्वरूप हमारा यह शांतिप्रिय देश कई बार आग की लपटों में भी घिर चुका है। मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने को लेकर पूरे देश में छात्रों द्वारा अपने भविष्य के प्रति चिंतित होकर जो आक्रोश व्यक्त किया गया था तथा उस दौरान जिस प्रकार की दर्दनाक घटनाएं सुनने में आई थीं, उन्हें याद कर आज भी दिल दहल जाता है। परन्तु आम जनता सिवाए मूकदर्शक बनी रहने के और कर भी क्या सकती है।
बहरहाल उच्चतम् न्यायालय ने गत् दिनों ओ बी सी आरक्षण के विषय में अपना जो ऐतिहासिक निर्णय दिया है उसने वास्तव में नेताओं की आंखें खोल कर रख दी हैं। उच्चतम् न्यायालय की एक 5 सदस्यीय पीठ ने सर्वसम्मति से अपने ऐतिहासिक फैसले में ओ बी सी वर्ग को उच्च शिक्षण संस्थानों में दिए जाने वाले 27 प्रतिशत आरक्षण के दायरे से आरक्षित वर्ग से सम्बद्घ रखने वाले सम्पन्न परिवार (क्रीमी लेयर) के लोगों को अलग रखने का निर्देश दिया है। साथ ही साथ माननीय न्यायालय ने शिक्षण संस्थानों को इस बात की भी हिदायत दी है कि आरक्षित सीटों के लिए अतिरिक्त सीटों का प्रबन्ध किया जाए ताकि सामान्य श्रेणी के छात्रों के हित भी सुरक्षित रह सकें। माननीय उच्चतम् न्यायालय का यह ऐतिहासिक फैसला एक ऐसा अदालती फैसला है जिसकी प्रतीक्षा गत् 5॰ वर्षों से देश के बुद्घिजीवी समाज द्वारा की जा रही थी। पूरे देश में इस विषय पर प्रायः बहस होती रहती थी कि आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य क्या है तथा आरक्षण का आधार आखिरकार क्या होना चाहिए। धर्म जाति के नाम पर आरक्षण किया जाना चाहिए अथवा आर्थिक स्थिति के मद्देनजर आरक्षण की जरूरत महसूस की जाए? अब तक देखा भी यही गया है कि आरक्षण तो बेशक दलित अथवा पिछडे वर्ग के लोगों का उनकी जाति अथवा समुदाय के आधार पर कर दिया जाता था परन्तु उसका लाभ जमीनी स्तर पर वास्तविक जरूरतमंदों तक बहुत ही कम पहुंच पाता था। आमतौर पर आरक्षित समुदाय से संबंध रखने वाले शक्तिशाली, नेतागण तथा साधन सम्पन्न लोग ही आरक्षण का लाभ उठा पाते थे।  ऐसा होने से निश्चित रूप से आरक्षण दिए जाने का सरकार का वह उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता था जिसके लिए कि आरक्षण नीति लागू की जाती थी। अर्थात् दबे कुचले व अपेक्षित समाज को ऊपर उठाना, उन्हें बराबरी के दर्जे पर लाना तथा इस प्रकार सम्पन्न भारत का निर्माण करना।
उच्चतम् न्यायालय ने पहली बार उच्च शिक्षण संस्थानों में ओ बी सी को दिए जाने वाले 27 प्रतिशत आरक्षण की परिधि से ओ बी सी वर्ग के सम्पन्न परिवारों (क्रीमी लेयर) को अलग रखने की हिदायत देकर भविष्य के लिए एक नई एवं सार्थक बहस को निमंत्रण दे दिया है। हालांकि केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान जैसे सम्पन्न घरानों के लोगों को यह बात जरूर नागवार गुजरी है तथा इन्होंने सम्पन्न घरानों के आरक्षण की भी वकालत की है। परन्तु पासवान जैसे नेताओं की बातों में केवल स्वार्थ की ही झलक देखने को मिलती है जबकि उच्चतम् न्यायालय का निर्णय पूरी तरह न्यायपूर्ण, राष्ट्रहित में तथा आरक्षण के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति करता हुआ नजर आता है। आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए, जातिगत नहीं। इस बात को लेकर कई दशकों से हमारे देश में अच्छी खासी बहस होती रही है। टेलीविजन व प्रिंट मीडिया में प्रायः इस विषय पर पत्रकारों व समीक्षकों के विचार आते रहे हैं। यदि मुट्ठी भर आरक्षित जातियों से संबंध रखने वाले नेताओं की बातें छोड दें तो आम समाज इसी विचारधारा का पक्षधर नजर आया है कि सम्पन्न लोगों को आरक्षण कतई नहीं दिया जाना चाहिए अर्थात् आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए जातिगत नहीं।


आज जब भारत तरक्की की राह पर आगे बढ रहा है तो उसे फिर से पीछे धकेलने की साजिश है ये।समाज को दो हिस्सों मे बाँटने की साजिश है।मै तो आरक्षण के औचित्य पर ही सवाल उठाता हूँ।आजादी के पचास साल बाद भी यदि हम आरक्षण की राजनीति करते रहे तो लानत है हम पर। मेरे कुछ सवाल है, शायद कोई आरक्षण समर्थक जवाब देना चाहे:
  • क्या दलित आज भी पिछड़े हुए है? यदि पिछड़े हुए है तो आजतक के आरक्षण का किया धरा सब पानी मे गया। है ना? और यदि नही पिछड़े है तो काहे का आरक्षण?
  • देश मे एक व्यक्ति एक संविधान क्यों नही लागू होता?
  • आरक्षण से दलित वर्ग को आज तक कितना लाभ हुआ?
  • हम हर जगह खुली प्रतियोगिता की बात करते है, तो फिर सभी नागरिको समान प्रतियोगिता का अवसर क्यों नही देते?
  • कब तक हम वर्ग विशेष को आरक्षण प्लेट मे रखकर देते रहेंगे?
  • सामजिक न्याय के नाम पर हम कब तक योग्य प्रतिभा का गला घोंटते रहेंगे?
  • कब तक ये वोट की गन्दी राजनीति चलती रहेगी?

आंबेडकर मे संविधान मे आरक्षण का प्रावधान सिर्फ 10 साल के लिये किया था अब 63 साल हो गये हैं ।जो आरक्षण पिछ्ले 63 साल मे कुछ नही कर पाया वह अब क्या कर लेगा?? 
भारत में रहना अब और भी चैलेंचिंग होने वाला है ।
सरकार अब शिक्षण संस्थाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण करने वाली है ।
तो अब हमारे छोटे भाई बहन जो जी तोड मेहनत कर रहे हैं, मूर्ख हैं ।
क्योंकि कोई उससे कम योग्य होते हुए भी जाति के आधार पर प्रवेश पा लेगा ।

क्या ये करने से देश व समाज का भला होगा ?
या जातिवाद, घूसघोरी को बढावा मिलेगा ।
यह कदम सिस्टम को मजबूत करेगा या उसे और कमजोर करेगा ?

मेरा मानना है कि जिनके पास साधन नहीं है पर प्रतिभा है, उन्हें साधन प्रदान किए जाने चाहिए, चाहे वो किसी भी जाति के हों । पर परीक्षा में चयन सिर्फ योग्यता पर होना चाहिए ।
मतलब सरकार व समाज पढाई के लिए जो हो सकता है करे, ट्यूशन फीस माफ करे, किताबों का इन्तजाम करे, कोचिंग की व्यवस्था करे और एक ऐसा सहयोग दे कि साधनाभाव का एहसास न हो ।


आप क्या सोचते हैं ?

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